मैं वेब सीरीज़ बहुत कम देखता हूं। लेकिन ज़्यादा ही चर्चा हुई, तो 'पाताल लोक' देख ली। सीरीज़ मुझे अच्छी लगी, लेकिन जितनी चर्चा सुन रहा था, उतनी अच्छी नहीं लगी। ऐसा नहीं लगा कि कुछ बिल्कुल ही दुनिया से अलग बना दिया हो।
पहले इसकी खासियत की बात की जाए:
- ग्रिपिंग स्क्रीनप्ले: इसमें रत्तीभर भी शक नहीं कि सीरीज़ शुरू से आखिर तक दर्शक को बांधे रखती है। कहीं पर भी ऊबने जैसा कुछ नहीं है।
- स्क्रीनप्ले में यथार्थवाद: सीरीज़ में बहुत सारे सामाजिक मुद्दे दिखाए गए हैं - जातिवाद, धार्मिक नफरत, गरीबी, भ्रष्ट और बदमाश नेता, पुलिस के आला अधिकारियों और सीबीआई का नेताओं का पालतू हो जाना, बलात्कार, बाल शोषण, पुरुषवादी हिंसक सोच, आर्थिक श्रेणी को लेकर भेदभाव, मीडिया का कॉरपोरेट के हाथों में बिक जाना, झूठी खबरें, अंधविश्वास।
देश के मौजूदा हालात की बहुत सी सीधी या अप्रत्यक्ष रेफरेंस इस यथार्थवाद को गहराती हैं. जैसे कि गौरी लंकेश के मर्डर का ज़िक्र, बीफ खाने के शक पर किसी की मॉब लिंचिंग, किसी जर्नलिस्ट का ट्विटर पर ट्रोल होना और जान से मारे जाने की धमकियाँ मिलना।
भाषा में लोकल शब्दों और असली लोकेशंस से भी एक वज़न आता है. - कैरेक्टर और एक्टर: 'हाथीराम चौधरी' के रोल में जयदीप अहलावत ने अपनी एक्टिंग से 'लट्ठ गाड़ दिया', यानि बहुत ही ज़बरदस्त एक्टिंग. पहली बार पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार और उसकी ज़िंदगी का इतना असली चित्रण हुआ है।
'इमरान अंसारी' का किरदार पूरी तरह दिल जीत लेता है। इश्वाक सिंह अपने रोल में डूब गए हैं।
जर्नलिस्ट 'संजीव मेहरा' के रोल में नीरज कबि ने हर बार की तरह ग़ज़ब परफॉरमेंस दी है। निहारिका लायरा दत्त (सारा मैथ्यूज़) और स्वस्तिका मुख़र्जी (डॉली) भी अपने रोल में जान फूँक देती हैं। - किरदारों के डिज़ाइन बहुत से स्टीरियोटाइप को तोड़ते हैं: किसी दूसरे देश से पढ़ी हुई, अंग्रेज़ी बोलने वाली, लव अफेयर चलाने वाली, शराब पीने वाली, अमीर लड़की का हिपोक्रेट (बगुलाभगत) होना जरूरी नहीं। वह एक ईमानदार, सच्ची पत्रकार भी हो सकती है।
हरियाणा के किसी आदमी का एक बाल्टी दूध पीने वाला पहलवान, भ्रष्ट और अक्खड़ पुलिस कॉन्स्टेबल या ऑनर किलिंग करने वाला दरिंदा होना जरूरी नहीं। वह अपनी पत्नी से प्यार करने वाला एक ईमानदार पुलिस वाला भी हो सकता है। - क्राफ्ट: सिनेमैटोग्राफी की बात करें, तो लाइटिंग पर बहुत अच्छा काम हुआ है। बाकी ऐसी यथार्थवादी थ्रिलर सीरीज़ में वही सिनेमैटोग्राफी सबसे अच्छी रहती है, जिस पर लोगों का ध्यान ना जाए। जो कहानी के साथ घुलकर उसे जीवंत कर दे। वाकई इस तरह की इम्प्रेसिव सिनेमैटोग्राफी देखने को मिलती है।
जिसमें सहायक रहा है डिटेल वाला बढ़िया प्रोडक्शन डिज़ाइन। घर के मंदिर में रंगीन लाइट से लेकर हिस्ट्री वाला होटल।
एडिटिंग, साउंड डिज़ाइन और म्यूज़िक के मामले में भी सब सही है।
अब बात करते हैं कि मुझे कमी क्या लगी:
1. दिमाग को उलझाने के लिए स्पीड से चलता हुआ स्क्रीनप्ले अच्छा है, लेकिन इमोशंस की गहराई का क्या?
जब आप समाज की कड़वी सच्चाई बयान करते हैं, तो कहानी में ड्रामा आता है। क्राइम का टॉपिक होता है, तो कहानी थ्रिलर भी होती है। इन दोनों का सामंजस्य बिठाना आसान काम नहीं है। इससे दो बेहतरीन फिल्मों की याद आती है - बॉन्ग जून हो की फिल्म 'मेमरीज़ ऑफ़ मर्डर' और 'मदर'। दोनों ही फिल्मों का सस्पेंस दर्शक को बाँधे रखता है, लेकिन ड्रामा भी ऐसा है कि कुछ सीन पर आपका कलेजा मुँह को आ जाता है।
'पाताल लोक' में सबकुछ दिखाने की कोशिश की गई है। एक सबटेक्सट के तौर पर नहीं, बल्कि कहानी में मुख्य एलिमेंट की तरह। बहुत ही ज़्यादा कैरेक्टर हैं। इसलिए इसके सीज़न 1 की लंबाई करीबन 7 घंटे होने के बावजूद समय कम पड़ता है।
इससे फायदा यह होता है कि दर्शक को हर कुछ मिनट के बाद कुछ नया देखने को मिलता है, जो उसके दिमाग को बाँधे रखता है। लेकिन दिल ज़्यादा कुछ महसूस नहीं कर पाता। किसी के दर्द को यहाँ एक 'मैटर ऑफ़ फेक्ट' की तरह पेश कर दिया जाता है। किसी सामाजिक मुद्दे को बिना गहराई के जल्दी से दिखा देना भी एक तरह की 'इंसेन्सिटिविटी' जैसा हो जाता है।
ऐसा कोई दर्शक नहीं है, जो इन सामाजिक मुद्दों से वाकिफ़ ना हो। ऐसे में किसी सामाजिक मुद्दे को दिखाने का यही जायज़ मकसद दिखता है कि दर्शक एक गहरे स्तर पर लोगों का वह दर्द महसूस कर पाए।
जैसे 'सुपर डीलक्स' फिल्म में एक सीन है, जहाँ एक छोटा बच्चा औरत बन चुके अपने ट्रांसजेंडर पिता को अपने साथ स्कूल ले जाता है। क्योंकि वह अपने साथियों को अपने पिता से मिलवाना चाहता रहा है। लेकिन स्कूल का एक मुलाज़िम उस ट्रांसजेंडर औरत को देखते ही 'जाओ, जाओ, जाओ.....' चिल्लाने लगता है, और उसे वहाँ से जाना पड़ता है। यह एक इतना पावरफुल सीन है, कि कोई भी व्यक्ति इसे देखकर भावुक हो उठे।
किसी सामाजिक मुद्दे को दिखाना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम है। एक इंटरव्यू में माइकल हैनेकी कहते हैं कि फ़िल्मकार को दुःख-दर्द में सस्पेंस या मेलोड्रामा वाला एंटरटेनमेंट नहीं ढूँढना चाहिए। वे नाज़ी होलोकॉस्ट पर बनी हुई ज़्यादातर फिल्मों की आलोचना में कहते हैं कि जब यहूदियों को नंगा कर गैस चेंबर में डाला जाता है, तो यह सस्पेंस नहीं होना चाहिए कि पानी निकलेगा या गैस। क्योंकि यह 'मनोरंजन' उस दुःख-दर्द को 'बीलिटल' करता है, यानि उसे कमतर आँकता है। दर्शकों के लिए उस दर्द को नॉर्मलाइज़ कर देता है। 'सुपर डीलक्स' में फाहद फ़ाज़िल वाली कहानी में बिल्कुल यही समस्या नज़र आई थी, जो एक ग़ज़ब की फिल्म का लैवल थोड़ा नीचे करती है।
लेकिन 'पाताल लोक' में यह समस्या लगभग हर जगह है। हाँ, हाथीराम के बेटे सिद्धार्थ की कहानी ऐसी लगी, जिसके साथ काफ़ी हद तक न्याय हो पाता है। वर्ना उसके अलावा यथार्थवाद का कंटेंट गहरा है, लेकिन उसको दिखाए जाने में गहराई लगभग पूरी तरह से गायब है।
किरदारों की 'बैक स्टोरी' दिखाने का विचार अच्छा है। इससे भी एक फिल्म की याद आती है। 2015 में 'बेस्ट फीचर फिल्म' का नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली फिल्म 'कोर्ट', जिसकी लंबाई केवल 2 घंटे है। कोर्ट में एक केस चल रहा है। धीरे-धीरे बहुत उदासीनता के साथ। हाइपरलिंक के साथ आरोपी, डिफेंस वकील, सरकारी वकील और न्यायधीश की ज़िंदगी दिखाई जाती है। उनकी ज़िंदगी के कोई मुख्य इवेंट नहीं, बल्कि उनकी हर रोज़ की ज़िंदगी। इस तरह की फिल्म बनाने में बहुत जोखिम होता है, और वाकई यह मराठी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। लेकिन फ्लॉप होना इस फिल्म की महानता को कम नहीं करता।
फिल्म में या असलियत में, अगर आप किसी की ज़िंदगी को जानना समझना चाहते हैं, तो आपको इत्मीनान रखना होगा। आपको उन्हें टाइम देना होगा।
जैसे कि अगर फिल्म में चार आरोपियों के बजाए केवल 'हथौड़ा त्यागी' एक अकेला आरोपी होता, तब शायद कहानी ज़्यादा बँधी हुई होती। और उस किरदार, उसकी बैक स्टोरी, उसकी बदनसीबी के साथ ज़्यादा न्याय हो पाता। किरदार में एक 'कैरेक्टर आर्क' की संभावना भी होती। कोई हत्यारा 45 मर्डर करने के बाद बिल्कुल खूँखार हो सकता है, लेकिन वह पहली बार मर्डर करते हुए, और वह भी व्यक्तिगत बदला लेते हुए भी वैसा भावरहित क्यों दिखेगा?
2. कहानी में नई चीज़ें दिखती रहती हैं, लेकिन ओवरऑल प्लॉट फिर भी प्रेडिक्टेबल है:
आप लोग भी कमेंट्स में बताइए कि आपके साथ ऐसा हुआ या नहीं। लेकिन मैं पहले एपिसोड में ही जान गया था कि डीएसपी भगत की इस क्राइम में मिलीभगत है, और इंस्पेक्टर हाथीराम चौधरी को यह केस इसलिए दिया जा रहा है कि केस में कुछ आगे ना बढ़ सके।
3. 'हथौड़ा त्यागी' को हिरण्यकश्यप बताने का मुझे तो कोई लॉजिक समझ नहीं आया।
ठीक है कि आप उसे भी एक खूँखार राक्षस की तरह दिखाना चाहते हैं। लेकिन उसकी कुंडली में यह दिखाने का क्या मतलब बना? पूरी सीरीज़ किरदारों की बैकस्टोरी दिखाकर 'हिंसा का इतिहास' दिखाने की कोशिश करती है, और फिर अचानक से किसी को पैदाइशी हिरण्यकश्यप बना दिया। ऊपर से एक यथार्थवादी स्क्रीनप्ले 'सिंघम' वाले मसालेदार मोड में चला गया।
तस्वीरें साभार गूगल।